भगवत गीता का प्रथम अध्याय अर्जुन विषाद योग के नाम से जाना जाता है। जिसका अर्थ "अर्जुन के निराशा का योग" है। इस अध्याय में जब युद्ध शुरू होने वाला है तो अर्जुन युद्ध को करने या छोड़ने का निर्णय नहीं कर पाते है। अर्जुन अपने आंतरिक दुःख और डर का अभिव्यक्त करते हैं। वे अपने अपने परिवार और मित्रों से प्यार के बीच में फँस जाते हैं।
अर्जुनविषादयोग : प्रथम अध्याय
धृतराष्ट्र उवाच! धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||1.1||
धृतराष्ट्र ने कहा: हे संजय, कुरुक्षेत्र में युद्ध करने का इच्छुक होकर
मेरे पुत्र और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
सञ्जय उवाच! दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् || 1.2 ||
सञ्जय बोले: उस समय, राजा दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को युद्ध की व्यूह में देखकर अपने आचार्य द्रोण के पास गए और निम्नलिखित शब्दों में बोले।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता || 1.3 ||
गुरुदेव, देखिए, पाण्डुपुत्रों की इस महान सेना को आपके ज्ञानी शिष्य, द्रुपदपुत्र ने व्यूह में तैयार किया है।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः || 1.4 ||
यहां इस युद्ध में शूरवीर महेष्वासा, भीम और अर्जुन के समान योद्धा हैं। युयुधान, विराट, और द्रुपद भी महारथी हैं।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः || 1.5 ||
यहां पाण्डवों की सेना में धृष्टकेतु, चेकितान, महान वीर राजा काशी, पुरुजित, कुंतीभोज, और मनुष्यों के श्रेष्ठ, शैब्य हैं।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः || 1.6 ||
यहां इस सेना में युद्धमन्यु, उत्तमौज, सुभद्रा के पुत्र, और द्रौपदी के पुत्र, सभी महारथी हैं।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते || 1.7 ||
किन्तु, द्विजों के श्रेष्ठ, कृपया जानिए कि पाण्डव सेना की तरह हमारे प्रमुख कौन हैं, मैं अब आपको उनका नाम बताता हूँ, आपके ज्ञान के लिए।
भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः |
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च || 1.8 ||
आप (द्रोणाचार्य), भीष्म, कर्ण, संग्रामविजयी कृपाचार्य, वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण, और सौमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः |
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः || 1.9 ||
मेरे लिए अपनी जान त्यागने को तैयार बहुत सारे योद्धा हैं, जो विभिन्न शस्त्रों का ज्ञान रखते हैं और युद्ध कला में प्रवीण हैं।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् || 1.10 ||
हमारी शक्ति और सेना, भीष्म के संरक्षण में होने के बावजूद, पर्याप्त नहीं है, लेकिन पाण्डवों की शक्ति और सेना, भीम के संरक्षण में, पूरी तरह पर्याप्त है।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः |
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि || 1.11 ||
हमारी सेना के सभी प्रमुख अपने-अपने स्थानों पर रहकर सभी लोग भीष्मपितामह की ही रक्षा करें।
तस्य सञ्जनायन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || 1.12 ||
दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवों के पितामह और वृद्ध प्रमुख भीष्म ने सिंह के गर्जने के समान ध्वनि में शंख बजाया।
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् || 1.13 ||
इसके तत्पश्चात शंख, नगारे, ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि अनेक प्रकार के बाजे एक साथ बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।1.14।।
उसके पश्चात सफेद घोड़ों वाले विशाल रथ पर विराजमान हुए प्रभुजी श्रीकृष्ण और पांडव पुत्र अर्जुन ने दिव्य शंखों को बजाया।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।1.15।।
भगवान कृष्ण ने 'पाञ्चजन्य', अर्जुन ने 'देवदत्त' नामक और भीम ने 'पौण्ड्र' नामक महाशंख बजाया।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।1.16।।
कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने अनन्तविजय, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख बजाये।
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।1.17।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।1.18।।
हे राजन्! महान धनुर्धर काशिराज एवं महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट और सात्यकि, राजा द्रुपद,
द्रौपदी के पांचो पुत्रों ने एवं विशाल भुजाओं वाले सुभद्रा-पुत्र अभिमन्यु आदि ने अलग-अलग शंख बजाये। ।।1.17।।1.18।।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।1.19।।
हे राजन्! पांडवो की सेना के शंख घोष से उत्पन्न ध्वनि द्वारा आकाश और धरती के बीच हुई गर्जना ने आपके पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण कर दिया।
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
तब कपिध्वज लगे रथ पर बैठे पाण्डुपुत्र अर्जुन ने धृतराष्ट्र के साथी रथों को व्यवस्थित देखकर गाण्डीव धनुष को उठाया और भगवान श्री कृष्ण से यह बोले.
अर्जुन उवाच हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।।1.21।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।1.22।।
अर्जुन बोले! हे पृथ्वी के स्वामी, हे अच्युत, मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच स्थापित स्थापित करने की कृपया करे
ताकि मैं युद्ध क्षेत्र के योद्धाओं को देख संकू कि जिनके साथ मुझे युद्ध करना है। ।।1.21।।1.22।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।1.23।।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में साथ देने राजाओ और उनकी सेना को देख लू
संजय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।।1.24।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।
संजय बोले - हे धृतराष्ट्र! इस प्रकार अर्जुन के द्वारा कहे जाने पर श्रीकृष्ण ने भीष्म पितामह एवं आचार्य द्रोण तथा समस्त राजाओं की सेनाओं के मध्य रथ को खड़ा करके बोले, हे पार्थ! युद्ध के उद्देश्य से आये इन कौरवों को देखो
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृ़नथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।1.26।।
इसके बाद अर्जुन ने दोनों सेनाओं में उपस्थित पिता, दादा, गुरु, मामा, भाई, पुत्र, पौत्र, मित्र, श्वसुर तथा संबंधियों को देखा।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।
कुंती पुत्र अर्जुन ने वहा उपस्थित समस्त बन्धुओं को देखकर अत्यधिक करूणा से ये वचन बोले।
अर्जुन उवाच कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।1.28।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।1.29।।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।1.30।।
अर्जुन बोले - हे माधव! युद्ध भूमि में अपने समस्त कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे है, मेरा मुख सुख रहा है, शरीर कांप उठा है, हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है, मेरी त्वचा जल रही है, मेरा मन भ्रमित हो रहा है, मै खड़े रहने में असमर्थ हो रहा हूँ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।1.31।।
हे माधव! मैं लक्षणों को विपरीत देख रहा हूँ, अपने स्वजनों को मारकर कोई हित भी नही देख रहा हूँ।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।1.32।।
हे माधव! मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ, और न राज सुख और वैभव चाहता हूँ। हे माधव हमे राज्य से और राज सुख से क्या लाभ, ऐसे जीवन से भी क्या लाभ।
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।1.33।।
जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख की इच्छा है वे सभी अपने धन और प्राणों की चिंता किये बिना युद्ध भूमि में खड़े है।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्चशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।1.34।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।1.35।।
आचार्य, पिता, पुत्र तथा इसी प्रकार दादा, चाचा, ससुर, पौत्र, साला तथा अन्य सभी सगे-सम्बन्धी है,
हे मधुसूदन! यदि वे मुझ पर आक्रमण करेंगे फिर भी या तीनो लोको का राज्य मिलने पर भी मैं उन्हें मारना नहीं चाहता।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।1.36।।
हे माधव! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या लाभ? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप के ही भागी बनेगे।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।1.37।।
हे माधव! अपने ही स्वजनों और धृतराष्ट्र को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं,
क्योंकि अपने ही स्वजनों को मारकर कैसे सुखी हो सकते हैं?
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39।।
यद्यपि लोभ में लिप्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन हुए दोष और मित्रो से विद्रोह रखने से होने वाले पाप को नही देखते तो फिर हे जनार्दन! हम तो जानते हुए कि कुल के नाश करने से पाप के भागी बनेगे फिर हमें इस पाप से दूर रहने का विचार क्यों नही करना चाहिए।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।1.40।।
कुल का नाश होने पर कुल धर्म नष्ट हो जाते है और जब कुल धर्म नाश होता होता और शेष कुल को अधर्म नष्ट कर देता है।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।।1.41।।
हे माधव! पाप अधिक बढ़ने पर कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती है इसलिए हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने के कारण वर्णसंकर पैदा होता है।
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।1.42।।
वर्णसंकर कुलघातियो को और कुल को नरक में ले जाते है एवं श्राद्ध और तर्पण से वंचित ये लोग अर्थात कुलघातियो के पितर भी नरक में जाते है।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।1.43।।
वर्णसंकर से उत्पन दोषों से कुलघातियो के कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते है।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।1.44।।
हे जनार्दन! जिनके कुल धर्म नष्ट हो जाते है उनको अनिश्चित काल के लिए नरक भोगना पड़ता है, ऐसा हम सुनते आये है।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।
यह बड़े ही शोक की बात है कि हम महापाप करने का निश्चय कर बैठे है जो राजसुख एवं लोभ के लिए अपने ही परिजनों को मारने के लिए तेयार हो गये।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।
यदि मुझ शस्त्रहीन पर ये धृतराष्ट्र के हितकारी एवं हाथों में शस्त्र-अस्त्र ये लोग मुझे मार भी दे तो ये मेरे लिए हितकारी होगा।
सञ्जय उवाच एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।1.47।।
संजय बोले- युद्धभूमि में शोक से उद्विग्न ह्रदय अर्जुन इस प्रकार कहकर अपने धनुष को त्याग कर अपने रथ पर बैठ गये।